दो मुक्तक

भाव की न तो गोदावरी ही बही, न बही नर्मदा न बही ताप्ती
भावना लड़खड़ाती हुई रह गईचंद शंकाओं से थी घिरी काँपती
रंग फ़ागुन के पतझरचुरा ले गया,जेठ ने लूट ली सावनी हर घटा
और अनुभूतियाँ रह गईं मोड़ पर राह अभिव्यक्तियों की रहीं ताकती

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आपके कुन्तलों से लिपट कर गई तो उमड़ती घटा सावनी हो गई
आपके होंठ को चूम कर जो चली, गुनगुनाती हुई रागिनी हो गई
आपके स्पर्श मे एक जादू भरा, मानने लग गये आज सब ही यहाँ
आपकी दॄष्टि की रश्मियां थाम कर मावसी रात जब चाँदनी हो गई

7 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

आदरणीय राकेश जी,

दोनो ही मुक्तक मनहर हैं, बहुत सुन्दर रचनायें..

***राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

अति सुन्दर!!! बधाई.

अमिताभ मीत said...

वाह ! क्या बात है. क्या कहूँ ?? बस बार बार पढ़ कर डूबता-उतराता हूँ. कमाल है.

रंजू भाटिया said...

रंग फ़ागुन के पतझरचुरा ले गया,जेठ ने लूट ली सावनी हर घटा
और अनुभूतियाँ रह गईं मोड़ पर राह अभिव्यक्तियों की रहीं ताकती


बहुत खूब लिखा है राकेश जी आपने ..दोन ही बहुत खूबसूरत है .यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी मुझे

रंजू भाटिया said...

राकेश जी आपको बहुत बहुत बधाई जन्मदिन की आप यूं ही सुदर गीत रचते रहें यही शुभ कामना है मेरी :)

Sanjeet Tripathi said...

जन्मदिन की बधाई व शुभकामनाएं

Unknown said...

राकेश जी -
प्रात स्वजनों सा मिला था, एक चमका मधुर तारा
शाम यूँ संदेस आया, था जनम का दिन तुम्हारा
- जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएं - मनीष

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