सांस की शाखाओं पर बैठा हुआ यह वक्त का पाखी परों को तोलता है
और भी उलझा रहा, हर एक गुत्थी धड़कनों की लग रहा जो खोलता है
हाथ पर रख हाथ बैठा रह गया है हाथ का कंगन बिचारा
चल दिया उंगली छुड़ाकर, जो उसे झंकार दे ता वह सहारा
पैंजनी हतप्रभ न कुछ भी कह सकी है मौन होकर रह गई है
और टीके की चमक,धाराओं में बन कर किरण इक बह गई है
ठेस से पीड़ित कुंआरी साध का मन एक पत्ते के सरीखा डोलता है
एक है विश्वास जो आ फिर नये संकल्प के कुछ मंत्र मन में घोलता है
स्वप्न की किरचें उठा कर ताक पर रखते हुए उंगली छिली है
पोटली जो है फ़टी, वह प्रश्न करती, आज क्या भिक्षा मिली है
पांव कँपते हैं, हवा में अलगनी पर एक लटके वस्त्र जैसे
और राहें पूछती हैं, तय करोगे सामने लंबा बिछा यह पंथ कैसे
मंदिरों की घंटियों का शोर कुछ कहता नहींलगता मगर कुछ बोलता है
और नत जो हो चुका है शीश फिर उठता नहीं है झोलता है
स्वर्ण पारस के परस का, पतझरी बन रोष है बिखरा हवा में
और शाखों का सिरा हर एक नभ की ओर उठाता है दुआ में
छटपटाती आस फिर असमंजसों के दायरे में कैद हो कर रह गई है
तोड़ कर हर बाँध संयम का बनाया, एक नदिया बह गई है
आस्था के हर उमड़ते ज्वार को तट पर खड़ा नाविक ह्रदय फिर मोलता है
सांस की शाखाओं पर बैठा हुअ यह वक्त का पाखी परों को तोलता है
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8 comments:
आनन्द आ गया-क्या बिम्ब हैं!!! बहुत ही उम्दा. आपकी तारिफ में शब्द कम पड़ जाते है हमेशा. क्या करुँ-सलाह दें. :)
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
क्या बात है।
राकेश जी,
इतनी लंबी लंबी पंक्तियाँ और फिर भी एक भी शब्द वृथा नहीं लगता, यह आपकी लेखनी की विशेषता है। बहुत खूबसूरत गीत...
***राजीव रंजन प्रसाद
sundar...bahut sundar
अत्यन्त सुंदर।
मन मे उथल-पुथल मचा दी है इस रचना ने।
यह वक्त का पाखी
हर रुप मेँ हर शब्द मेँ,
कितना कुछ कह गया,
गहन अनुभूतिजन्य उच्छवास्
ह्र्दय मेँ भाव अद्भुत दे गया !
- लावण्या
राकेश जी
ऐसे ऐसे बिम्ब प्रयोग में लायें हैं आप की पढ़ कर चमत्कृत हूँ. विलक्षण रचना...अद्भुत भाव...वाह..वा..इश्वर करे आप की लेखनी की ये गंगा सदा अबाध गति से बहती रहे और इसमें डूबने वाले के मन को शीतलता प्रदान करती रहे... .
नीरज
पीड़ा के हवन में तप कर इस कविता के हर शब्द की उत्पत्ति हुई है। हर एक शब्द शुद्ध बुद्ध भावना को अभिव्यक्त कर रहा है। एक बेहद सुन्दर रचना के लिये बधाई। --बीना तोदी
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