दृष्टियों में बिम्ब
ईद मुबारक
उलझन में फंसे शामो सुबह बीत रहे हैँ
अंधियारे उजालो से लगे जीत रहे हैं
झंझाओं के आगोश में लिपटा हुआ है अम्न
सुख चैन लगा हो चुके बरसों से यहां दफ्न
ओढ़े हुए है ख़ौफ़ को नीची हुई नजर
जम्हूरियत का कांपता बूढ़ा हुआ शजर
फिर भी किये उम्मीद की शम्मओं को रोशन
रह रह के हुलसता है जिगर ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सुबह ईद मुबारक
विस्फोट ही विस्फोट हैं हर सिम्त जहां में
रब की नसीहतों के सफे जाने कहाँ है
इस्लाम का ले नाम उठाते है जलजला
चाहे है हर एक गांव में बन जाए कर्बला
कोशिश है कि रमजान में घोल आ मोहर्रम
अब और मलाला नहीं सह पाएगी सितम
आज़िज़ हो नफ़रतो से ये कहने लगा है दिल
अब और न घुल पाये ज़हर ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक
अल कायदा को आज सिखाना है कायदा
हम्मास में यदि हम नहीं तो क्या है फायदा
कश्मीर में गूंजे चलो अब मीर की गज़ले
बोको-हरम का अब कोइ भी नाम तक न ले
काबुल हो या बगदाद हो या मानचेस्टर
पेरिस मे न हो खौफ़ की ज़द मे कोइ बशर
उतरे फलक से इश्क़ में डूबी जो आ बहे
आबे हयात की हो नहर, ईद मुबारक
कहती है ये खुशियों की सुबह ईद मुबारक
जरा शुभचिंतकों से
पितृ दिवस 2017
कौन सकेत देता रहा
हम खुद से अनजान हो गये
शब्द
गतियाँ जो थक रहे पाँव को
रहा सौंपता नई अस्मिता जो नित ही बेनाम नाम को
आभारी हूँ सदा प्रेरणा बन कर साथ रहा जो मेरे
है उसका आभार दीप बन पीता आया घिरे अँधेरे
अन्त:स में कर रहा प्रवाहित जो भावों का अविरल निर्झर
शब्दों में ढल होठों पर आ जिसने हर पल गीत बिखेरे
भाषा और व्याकरण में ढल जो स्वर का श्रूंगार कर रहा
नित्य सुहागन कर देता है दूर क्षितिज ढल रही शाम को
है उसका आभार, शब्द जो आभारों के सौंप रहा है
अन्तर्मन की गहन गुफ़ा में जो दामिनि सा कौंध रहा है
है उसका आभार सांस की सोई हुई मौन सरगम में
धड़कन की अविराम गति की तालें आकर रोप रहा है
उसका है आभार विगत को कर देता है जो संजीवित
फिर सुधियों में ले आता है अपने छोड़े हुये गांव को
मिल जाता है कभी कहीं पर भूले भटके परछाईं में
मिल जाता है कभी अचानक, बिखरी बिखरी जुन्हाई में
जलतरंग बन कर लहरा है आंखों की गहरी झीलों में
आभारी हूँ उसका, जिसकी छाप भोर की अरुणाई में
आभारी हूँ , गीतों के इस नित्य हो रहे सिरजन पथ पर
बन कर नव पाथेय दे रहा गतियाँ जो थक रहे पाँव को
कांपती सी हवा है
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