अपने गुलदान में रोज उम्मेद के फूल लाकर नये हम सजाते रहे
सांझ के साथ झरती रहीं पांखुरी, चाह की मैय्यतें हम उठाते रहे
आफ़ताबों के झोले में मिल न सकी, मेरी तन्हाई शब को कोई भी सहर
माहताबों से हासिल न कुछ हो सका, जुगनुओं की तरह टिमटिमाते रहे
बिक रहे हम सियासत की दूकान में, चंद श्लोक हैं, चार छह आयतें
जिसको जैसी जरूरत हमारी रही, दाम वैसे ही आकर लगाते रहे
कोई बाकी नहीं जो फ़रक कर सके कौन खोटा यहां है, खरा कौन है
मांग सिक्कों की बढ़ती रही इसलिये जो मिला सामने वो चलाते रहे
जिनको हमने बनाया हुआ रहनुमा, आज फ़ितरत उन्ही की बदलने लगी
आदमी से बनाया हमें झुनझुना, जब भी चाहा हमें वे बजाते रहे
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नव वर्ष २०२४
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3 comments:
जिनको हमने बनाया हुआ रहनुमा, आज फ़ितरत उन्ही की बदलने लगी
आदमी से बनाया हमें झुनझुना, जब भी चाहा हमें वे बजाते रहे
-- बहुत बढ़िया. क्या कल्पना है!! :)
बहुत अच्छा लिखा है राकेश जी। सियासत का सही खाका खींचा है आपने। बहुत-बहुत बधाई।
हमने ये पढ़ा 'आदमी से हमें बनाया झुनझुना' तो लगा कि कहें राकेशजी कुछ दिन इसी मूड की रचनायें लिखें!
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