आँजुरि में जल भरे अक्षत लिये , मैं हूँ प्रतीक्षित
कोई आकर मंत्र बोले और मैं संकल्प लूँ नव
शर्मग्रंथों में लिखीं जो आचरण की संहितायें
अर्थ जिनके दे उदाहरण जो हमें आकर बतायें
योगक्षेमं वासुधैव<. शब्द से होते परे हैं
सत्य का विस्तार होता, सार्थक जो कर बतायें
वे पुरोहित मिल सकें यदे एक दिन भागीरथी तट
तो निमिष के आव्हानों पर लुटा दूँ कल्प मैं अब
कोई हो जिसने कभी हो नीतियों का अर्थ आँका
शांति क्या केवल कबूतर, पत्तियों की एक शाखा
व्याकरण, निरपेक्षता का जो कभी समझा सका हो
और माने पुत्र मानव है उसी बस एक मां का
वो अगर वामन मिले, मैं बन बलि निर्वास ले लूँ
धड़कनों की रागिनी के तार को विस्तार दूँ तब
जानता हूँ स्वप्न सारे शिल्प में ढलते नहीं हैं
यज्ञ-मंडप में सजें जो पुष्प नित खिलते नहीं हैं
कल्प के उपरांत ही योगेश्वरों को सॄष्टि देती
औ' उपासक को सदा आराध्य भी मिलते नहीं हैं
किन्तु फिर भी मैं खड़ा हूँ, दीप दोनों में सजा कर
कोई तो आगे बढ़ेगा, आज मैं आवाज़ दूँ जब
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2 comments:
थोड़ी और ज़ोर से आवाज़ देना...
शायद ओम, आहम से छूट...स्वयं में जाग ही जाये....
अच्छी लगी !!
मन की वीणा की आवाज शायद पहुँचे वहाँ नभ तक…क्रियाएँ हो आविष्कार की नेति-नेति को पक…!!
अच्छी है…।
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