अपने गुलदान में रोज उम्मेद के फूल लाकर नये हम सजाते रहे
सांझ के साथ झरती रहीं पांखुरी, चाह की मैय्यतें हम उठाते रहे
आफ़ताबों के झोले में मिल न सकी, मेरी तन्हाई शब को कोई भी सहर
माहताबों से हासिल न कुछ हो सका, जुगनुओं की तरह टिमटिमाते रहे
बिक रहे हम सियासत की दूकान में, चंद श्लोक हैं, चार छह आयतें
जिसको जैसी जरूरत हमारी रही, दाम वैसे ही आकर लगाते रहे
कोई बाकी नहीं जो फ़रक कर सके कौन खोटा यहां है, खरा कौन है
मांग सिक्कों की बढ़ती रही इसलिये जो मिला सामने वो चलाते रहे
जिनको हमने बनाया हुआ रहनुमा, आज फ़ितरत उन्ही की बदलने लगी
आदमी से बनाया हमें झुनझुना, जब भी चाहा हमें वे बजाते रहे
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
3 comments:
जिनको हमने बनाया हुआ रहनुमा, आज फ़ितरत उन्ही की बदलने लगी
आदमी से बनाया हमें झुनझुना, जब भी चाहा हमें वे बजाते रहे
-- बहुत बढ़िया. क्या कल्पना है!! :)
बहुत अच्छा लिखा है राकेश जी। सियासत का सही खाका खींचा है आपने। बहुत-बहुत बधाई।
हमने ये पढ़ा 'आदमी से हमें बनाया झुनझुना' तो लगा कि कहें राकेशजी कुछ दिन इसी मूड की रचनायें लिखें!
Post a Comment