पोंछता हूँ धुंध में डूबा हुआ चश्मा निरंतर
और धुंधली हो गई रेखाओं में कुछ
खोजता हूँ
परिचयों के तार जिनसे थे बंधे, रेखाएँ खोयी
और वे भी, जो निरंतर राह में निर्देश देतू
ज़िंदगी के इस सफर में क्या मिले किस मोड़ पर आ
ढूंढता हूँ वे लकीरें जो मुझे सन्देश देती
इन उलझते जा रहे ज्योतिष गणित के आंकड़ों को
मैं घटा कर भाग देता फिर गुणा कर जोड़ता हूँ
खोजता हूँ हैं कहाँ पर खो गए अदृश्य धागे
जो दिलों को बाँध कर सम्बंध कुछ नूतन बनाएँ
और जो अवरोह को आरोह की सीढ़ी चढ़ाकर
बन सकें सरगम नई , नव राग में फिर झनझनाएँ
क्षेत्रफल में जो हथेली के सिमट कर बँध गई है
दायरे की बंदिशें उनको निशा दिन तोड़ता हूँ
खोजता हूँ मैं समय के सिंधु तट की रेतियों पर
चिह्न जो देकर दिशा ले जा सकेंगे मंज़िलों पे
खुर्दबीनी हो नजर फिर ढूंढती है मौक्त मणियाँ
पर लहर बस ला रखे है शंख सीपी साहिलों पे
ध्येय जो पाथेय का था, नीड तक क्या साथ देगा
मैं उहापोही कुहासों में घिरा यह सोचता हूँ
1 comment:
good poem
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