आज लगा है रूठ गया सा

  सम्बन्धों के राजमार्ग तक जाती थी जितनी रेखाएं 

मानचित्र  से उनका  नाता आज लगा है टूट गया सा 

पीठ टिकाये उजडे पीपल से बैठा है आवारा मन 
ढूंढ रहा है पगडण्डी पर बने नहीं उन  पदचिह्नों को 
फैले हुए विजन में तिरती हुई हवाओं  की देहरी पर 
खड़ा देखता सूखे तालाबों में बनते प्रतिबिम्बों को 
 
अपने से भी हुआ अजनबी, चाहे है परिचय तलाशना 
पर अपने से अपना रिश्ता आज लगा है रूठ गया सा 
 
अँगड़ाई से शुरु उबासी  तक फ़ैले दिन का सूनापन
मरुथल की मरीचिकाओं सा भी आकार नजर ना आता
रातों की चादर पर पड़ती हुई सलवटों के गुड़मुड़ के
चक्रव्यूह में बन्दी निद्रा का भी सिरा हाथ ना आता
 
अंधियारों के गर्भगृहों से ज्योति किरण उपजा करती है
इस थोथे आश्वासन का भ्रम तक हाथों से छूट गया सा
 
खड़ा महाजन इतिहासों का बहियाँ लिये हाथ में आकर
सब कुछ मिलता नाम लिखा ही कोई पूँजी नहीं जमा की
सुधियां चक्रवृद्धि  ब्याजों के समीकरण में उलझी रहती 
अपनी ही परछाईं तक भी आकर छूती नहीं जरा भी
 
बरस बीतते परिवर्तन की खिड़की सदा खुला करती है
आशाओं का भरा कलश यह, आज लग रहा फ़ूट गया सा
 

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