पता नहीं किस और छोर से अजब वक़्त यह आया
जब अपनी परछाई का भी ख़ुद को पता नहीं है
होती तो है सुबह , नदारद किंतु धूप अम्बर से
हर नरसिसस अपने अपने सूर्य जेब में रखता
खंडहर की ड्योढ़ी पर उपजे कीकर की टहनी पर
चकाचौंध में खोई आँखो को गुलाब ही दिखता
खींच रहे झीलों के खाके मरुथलिया धरती पर
जिनको जली प्यास का अनुभव तो हो सका नहीं है
आशंका से घिरे हुए हर इक परिचित का चेहरा
संदेहों के घने क़ुहासा उमड़ छा रहे मन में
चाहत फिर फिर ओढ़ रहीएकाकीपन की चादर
सारे बंधन तोड़ लौट ले फिर इक शून्य विजन में
मौन एक बगुले के जैसे अचल पत्र शाखा पर
जो तंद्रा से जगा सके वह चलती हवा नहीं है
खंडित हुई आस्थाओं के टुकड़े चुनते चुनते
रंजित हुई उँगलियो को बस मौन निहारा करता
डांवाड़ोल मान्यताओं की जर्जर होती नींवें
स्थिर करने की असफलता को सिर्फ़ संवारा करता
शांति और आश्वासन से सूने सारे पूजस्थल
आरति प्रेयर और अजान की बिल्कुल दशा नहीं है
No comments:
Post a Comment