शब्द की सीमाओं को अब तोड़ कर

 



कह सकूँ कुछ शब्द की सीमाओं को मैं तोड़ कर
इसलिए आया सुरों के पाश पीछे छोड़ कर 

है उचित कितना 
करूँ मैं शब्द के पिंजरे बना कर क़ैद अपनी भावना को 
या समेटूँ 
एक मुट्ठी आसमाँ के कटघरे में भाव की परवाज़ अपने
मैं विहग 
विस्तृत अटल में जो विचरने के लिए है काल के निश्शेष क्षण तक
किस घड़ी, पल
या प्रहर में संकुचित कर काट डालूँ इंद्रधनुषी डोर के रंगीन सपने 

बह  रहा मैं अब हवा की झालती से होड़ कर
कह सकूँ कुछ शब्द की सीमाओं को अब तोड़ कर

प्यार के 
पर्याय क भाषा हृदय की कोर से जब जब उठी है 
कब सहारा
वह तलाशी शब्द की बैसाखियों का स्वत्व की संप्रेषणा को
मैं नयन से
नयन तक तिरती तरंगी में हुई अविरल घनी आलोड़न से
दे रहा 
आवाज़ कण कण के कथन में मौन रह कर छुप गई उस प्रेरणा को 

उठ रहा हूँ उत्स हिमगिरि के ताने झँझोड़ कर
कह सकूँ कुछ शब्द की सीमाओं को मैं तोड़ कर

कब इबारत
शेष रहती जो लिखी जाती रही है सिंधु तट पर इस समय के
मैं लहर की
कूँचियाँ लेकर शिला की भीत पर कुछ चित्र अंकित कर रहा हूँ 
 वक्ष पर  
इतिहास के जो कर गए हस्ताक्षर अपने पगों के चिह्न बो कर 
मैं उसी क्रम को 
 निभाता आज की चट्टान पर सम्भावनाओं की नई अन्वेषणाए कर रहा हूँ 

ज़िंदगी के घट चुके संचय पुनः मैं जोड़ कर
कह रहा कुछ शब्द की सीमाओं को अब तोड़ कर 




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