वनवासी मन सोच रहा है पीछे छूट गई गलियों में
सँझवती का दीप जला क्या आँगन के तुलसी चौरे पर
इस नगरी में सुबह शाम का अंतर पता नहीं चल पाता
ट्यूबलाइट के तले बिना सूरज को देखे दिन ढल जाता
घिरी साँझ कब? रात चढ़ी कब ? कोई प्रश्न नहीं उठता है
दहलीज़ों का एकाकिपन फिर से सूना ही रह जाता
कल की बातें बिसर चुकी है एक एक कर धीरे धीरे
कोई इबारत शेष न दिखती यादों के काग़ज़ कोरे पर
नहीं बह सका कोई दीपक दौने में बेठा लहरों पर
पग पग पर अंकुश अनदेखा कोई लगा हुआ प्रहरों पर
किमकर्तव्यविमूढ भावना मन की ओढ़े असमंजस को
जिधर दृष्टि है उधर प्रश्न ही उगे हुए सारे चेहरों पर
अंधाधुंध दौड़ में आपा धापी मची हुई दिखती है
मादकताये सिर्फ़ कनक की चढ़ी हुई काले गोरे पर
घर के पूजागृह में चंदन अब भी रोज़ घिसा जाता क्या
देवी के आँगन में अब भी लांगुरिया गाया जाता क्या
अटका हुआ अटकलों में मन बंद हो चुके इतिहासों में
भोर मंगला आरतियों में शंख बजाया भी जाता क्या
लौट रहा है उसी धुरी पर चला अनवरत समय चक्र यह
जिससे सब कुछ हुआ नियंत्रित पर अदृश्य रहे डोरे पर
१४ जुलाई २०२१
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