जीवन पथ पर पग पग संचित होती हुई घनी पीड़ा की
ढलती हुई साँझ में होती है सम्भव अभिव्यक्ति नहीं अब
उगती हुई भोर में गूंजित होती हुई आरती के स्वर
से लेकर के सूर्या नमन तक के मंत्रित पल की आहुतियाँ
बिन सोचे बस अंध अनुकरण में खोना साँसों की निधि को
और बाद में पीछे मूड कर चुनना झरी हुई मंजरियाँ
संस्कृति के पश्चातापों के असमंजस से निकल गया जो
अपना पंथ बना लेता है इन राहों में व्यक्ति वही बस
बना त्रिशंकु लटका कोई कभी किसी के हठधर्मी से
पूरब पश्चिम के अनुपातों, आज-विगत के समीकरण से
उसे नियति भी अनदेखा कर बढ़ती रही काल के पथ पर
ओझल ही रह जाया करता किसी ध्येय के स्वयमवरों से
असफलताओं को ढकने की प्रवृतियों का एक रूप है
चाहत नहीं शेष कोई भी और कोई आसक्ति नहीं अब
जिसे समेटा किये निशा दिन केवल दिवास्वप्न ही निकले
और पकड़ में नहीं आ सकी दृष्टिभ्रमों की परछाई भी
जंगल पर्वत घाटी नदियाँ के तट तक भटके कदमों को
नहीं सांत्वना देने पाई अपनी जो थी अंगनाई भी
अभिलाषा के विस्तारों को करता रहा गुणित जो हर दिन
उसको दे संतोष शेष है कोई भी सम्पत्ति नहीं अब
राकेश खंडेलवाल
ढलती हुई साँझ में होती है सम्भव अभिव्यक्ति नहीं अब
उगती हुई भोर में गूंजित होती हुई आरती के स्वर
से लेकर के सूर्या नमन तक के मंत्रित पल की आहुतियाँ
बिन सोचे बस अंध अनुकरण में खोना साँसों की निधि को
और बाद में पीछे मूड कर चुनना झरी हुई मंजरियाँ
संस्कृति के पश्चातापों के असमंजस से निकल गया जो
अपना पंथ बना लेता है इन राहों में व्यक्ति वही बस
बना त्रिशंकु लटका कोई कभी किसी के हठधर्मी से
पूरब पश्चिम के अनुपातों, आज-विगत के समीकरण से
उसे नियति भी अनदेखा कर बढ़ती रही काल के पथ पर
ओझल ही रह जाया करता किसी ध्येय के स्वयमवरों से
असफलताओं को ढकने की प्रवृतियों का एक रूप है
चाहत नहीं शेष कोई भी और कोई आसक्ति नहीं अब
जिसे समेटा किये निशा दिन केवल दिवास्वप्न ही निकले
और पकड़ में नहीं आ सकी दृष्टिभ्रमों की परछाई भी
जंगल पर्वत घाटी नदियाँ के तट तक भटके कदमों को
नहीं सांत्वना देने पाई अपनी जो थी अंगनाई भी
अभिलाषा के विस्तारों को करता रहा गुणित जो हर दिन
उसको दे संतोष शेष है कोई भी सम्पत्ति नहीं अब
राकेश खंडेलवाल
No comments:
Post a Comment