कहती है एकाकी संध्या
गुम सुम होकर बैठ न पगले
पीड़ित बीन बजा प्राणों की
कुछ न कुछ तो ख़ुद से कहलें
जलतरंग पर सजा चढ़ाए
मैंने जब कुछ स्वर अकुलाकर
ताले देता तीर नदी का
बोल उठा मुझसे ये गाकर
जीवन का हर पल सुरभित है
बहती हुई हवा के संग में
तुम भी हर्षित होकर छेड़ो
सारंगी की तान बजा कर
खड़ी गली के मोड़ों पर आ
कर बहार, अगवानी कर ले
बासन्ती होगी अँगनाई
बस इक फूल हाथ में ले ले
मैंने जब खंडित मूरत पर
फूलों की आँजुरी चढ़ाई
घंटे की ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ
चंदन दीप जला कर लाई
लगे गूंजने आ प्रांगण में
मंत्रित वेद ऋचाओं के स्वर
साँस साँस में घुली मलयजे
तंत्रित हुई प्राण शहनाई
सरगम ने आकर दोहराया
तन मन दर्शन होगा मधुमक्खी
बस सकारती सोच एक तू
जीवन की बगिया में भर ले
बात मान मैंने मुसकाकर
अपनी दृष्टि उठा कर देखा
अनायास ही लगा बदलने
जो समझे विधना का लेखा
दूर क्षितिज तक फैली दिखती
बंदनवारों की फुलझड़ियाँ
बदल गई थी मधुमासों में
मन के अवसादों की रेखा
फिर जीवंत हो गई आकर
लिखी हुई ग्रंथों की वाणी
वैसे दृश्य सजा करते हैं
जैसी दृष्टि कामना कर ले
राकेश खंडेलवाल
१४ फ़रवरी २०२०
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