संशय

नव चेतना दे नया स्वर ये प्रार्थना हर वर्ष थी
इस बार भी रीती रहेगी, क्या ये फैली अँजुरी

हर रात में सजते सपन को भोर नित आ तोड़ती
हर साधना की रीत को चंचल हवा झकझोरती
मंज़िल डगर बिछती सदा ही मानचित्रों पर मगर
विपरीत हो नियति की रबर, उनको मिटा कर छोड़ती

लेकर चले हैं फूल हर इक बार पूजा के लिए 
देहलीज तक आते हुए, हर एक पाँखुर थी झरी 

विश्वास प्राणो का लिये हर रोज़ दीपक से जले
मिलते रहे पथ में हमें झंझाओं के ही सिलसिले 
पर आस्था की डोर हमने हाथ से छोड़ी नहीं
इक मोड़ पर आकर कभी मंज़िल स्वयं हमसे मिले 

हर बार  टूटीं आस के टुकड़े उठाते हम चले 
पर धारणा ये पतझरी शाखाओं सी सूनी रही 

करते रहे थे कामना सबके दिवस हों सुख भरे
अपना नहीं तो आपका पथ, चाँदनी ज्योतित करे 
पर रह गई हर बार पुस्तक बिन खुले विश्वास की 
अब कामना भी सोचती है कामना क्योंकर करे

इक कल्पना है साथ बस, जिसके सहारे पर चले
 वो अज रही है आज भी केकिं तनिक सहमी डरीं




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