दृष्टि में हर शाम

दृष्टि में हर शाम उभरी एक ही छवि वह मनोहर
एक दिन जो मोड़ पर वयसंधि के सहसा मिली  थी 

गा उठी थी कोकिले तब पतझरी अमराइयों में
और मन की क्यारियों में फूल अनगिनती खिले थे
रह रहे थे दृश्य जो छाए धुँधलके में लिपट कर
चीर  कर सारा कुहासा सामने खुल कर मिले थे

याद उस पल की बनी है शिल्प मन की वीथियों में
जब कुमुदिनी ले क़ेतकी को बिन ऋतु के ही खिली थी 

कर चुकी है उम्र कितनी दूरियाँ तय इस सफ़र में 
परिचयों की सूचियों में नाम कितने जुड़ गए हैं
दृष्टि में हर शाम आता सामने वह नाम केवल
पृष्ठ मन की पुस्तकों के एक जिस पर मुड़ गए हैं 

लौट कर जाता निरंतर  मन समुद्री पंछियों सा 
उस जगह पर याक ब यक मंजुल मिली thi

दृष्टि में हर शाम खुलते पट उन्ही वातायनों के
पार जिनके पुष्पधनवा के शैरन के रंग बिखरे
रंग गई थी ओढ़ जिनको वादियों की सब दिशाएँ
और नव शृंगार के पल थे जहाँ पर झूम सँवरे

गगन घिर आता क्षितिज तक राजहँसों के परों से 
ताजमहली शिल्प की परछाइयाँ  जैसे मिली थीं 

2 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बच्चों का बचपना गुम न होने दें : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

Anita said...

कोमल भावयुक्त रचना..

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