इस उजड़ते हुये गाँव से


आज इक और राही निकल कर चला उम्र के इस उजड़ते हुये गाँव से 
हो चले चिह्न सारे बनेधूमिली कल तलक जिनको छोड़ा हुआ पाँव ने 


जो चुनी उसने राहेंगई शून्य को कोई भी लौट कर के नहीं आ सका 
है ये उद्गम या फिर अंत हैराह का कोई इसका पता भी नहीं पा सका 
जाते जाते समेटे हैं जो फूल वे हैं लपेटे हुए ग़म कि या फिर ख़ुशी 
हर कोई घिर के असमंजसों में रहा सत्य क्या है समझ में नहीं आ सका 


इस सफ़र में बिछी चौसरे हर तरफ़हार निश्चित सदा ही लगे दाँव पे 
और घाटा ही घाटा ही हासिल रहा उम्र के इस उजड़ते हुए गाँव से 


हर दिवस ने सजाया था पाथेय नव,इंद्रधनुषी सपन आँख में आँजते
साँझ के नीड़ से पूर्व ही था चुका हर क़दम पर गिरा कोष से भागते 
हाथ में एक कासा थमा माँगता था अपेक्षायें हर इक खुले द्वार से 
और धागों में आशा पिरोए हुए रोज दरगाह में जा उन्हें टाँगते

सूर्य की तपतपी  साथ में ही रही कितना बैठे था जा पेड़ की छांव में 
किन्तु विश्रान्ति के पल नहीं मिल सके, उम्र के इस उजडते हुये गाँव में

छोड़ जाते रहे लोग इस गाँव से और बढ़ती रही पीर दिल में घनी 
हाथ के पाँव के बढ़ते शैथिल्य से निश्चयों की  हुई और कुछ तनतनी
मध्य में द्रश्य के और बीनाई के अवणिकाएँ नई नित्य गिरने लगी 
और अपनातव की गंध वाले क्षणों से  बढ़ गई और ज़्यादा हुई दुश्मनी

चल दिया जो निकल, वो न राही रुका, कोई ज़ंजीर बाँध न सकी पाँव से 
छोड़ जाते रहे एक के बाद इक उम्र के इस उजड़ने हुए गाँव से 

No comments:

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...