ओ सुनयने फूल गूँथे वेणियो में सज रही तुम
आओ मैं कुन्तल सँवारूँ शब्द के गजरे बनाकर
आओ मैं कुन्तल सँवारूँ शब्द के गजरे बनाकर
आज तक तुमने संवारे पुष्प लेकर
चिकुर अपने
मोतिया, बेला, चमेली और हरश्रृंगार चुन कर
मैं पिरो दूँ गंध के गुलदान से चुन कल्पना के
खुल रहे आयाम नूतन डोरियों में आज बट कर
संदली शाखायें झूमें नृत्य में
तब छमछमाकर
आज मैं कुंतल संवारूँ शब्द के
गजरे बना कर
पारिजाती हो हवाए रंग ले कचनार
वाले
बन अलक्तक रक्त वर्णी पाँव रचती हैं तुम्हारे
अर्ध विकसित बूटियाँ अंगदाइयाँ लेते , हिना की
मुस्कुराती हैं अरुण रंग हो , हथेली में तुम्हारे
मैं रखूँ ला हस्त-पग में , रक्त शतदल पत्र लाकर
आओ मैं कुन्तल सँवारूँ शब्द के
गजरे बनाकर
ओ सुमुखि है फूल की तो
उम्र केवल एक दिन की
और बिखरी कुछ दिनों ही रूप की भी
ज्योत्सनाए
शब्द के शृंगार शाश्वत हो, रहे हर एक युग में
ये बताती आइँ हमको ग्रंथ में वर्णित
कथाएँ
मैं करूँ शृंगार गहने शब्द के नूतन सजाकर
और तुम वेणी सँवारो शब्द के गजरे लगाकर
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