लकीरें रह गई

भाग्य जिसको सोचते थे एक दिन
सामने होकर खड़ा मुसकाएगा
कट गई ये ज़िंदगी करते प्रतीक्षा
हाथ में धुँधली लकीरें रह गई

दिन उगा फिर ढल गया फिर से उगा
मौसमों के साथ ऋतुएँ थी गई
तय रहा। चलना हवा,  तो चली
आएगी झंझाएँ, पुरबा कह गई

चक्रवातों से घिरे चलते रहे
लड़खड़ाते पाँव थे, दुर्गम डगर
पंथ में​ ​विश्रांति की सारी जगह
तेज़ आँधी में समूची ढह ग़ैर

जन्मकुंडली को बना पंडित कहे
हर दिशा, नक्षत्र हर अनुकूल है
साथ चलते बुध, मंगल शुक्र यूँ
फूल में बदले मिले जो शूल है

पर न जाने क्या हुआ, पग जब उठे
राह सम्मुख आइ थी काँटों भरि
पास के पाथेय की थैली भरी
झाड़ियों में थी उलझ कर क्षय गई

उम्रभर वयसंधियों के मोड़ पर
थी मिली फिसलन भरी  ही घाटियाँ
दूर तक कोई सहारा था नहीं
मंज़िलें थी बिन पते की पातियाँ

दृष्टि से ओझल रहा था भाग्यफल
“कुछ नहीं मिलता परिश्रम के बिना
पंडितों ने जो कहा, वह झूठ है”
शाख़ पर आ एक चिड़िया कह गई

हाथ में धुँधली लकीरें रह गई

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