एक उजली शाम के भटकाव में

खो चुके पहचान हम अपनी यहाँ
एक उजली शाम के भटकाव में
ढूँढते कुछ पल मिलें अपने कहीं
व्यस्तताओं के बढ़े सैलाब में

भोर ने प्राची रंगी हर रोज ही 
हम घिरे इक दायरे में रह गए
जो दिवस ने ला थमाए थे प्रहर
हाथ से फिसले कही पर बह गए 
आँख में आकर निशा थी आँजती
इक सुनहरे स्वप्न की परछाइयाँ 
किंतु चढ़ते रात की कुछ सीढिया
वे सभी टूटे बिखर कर ढह गए 

जानते थे मरूथली आभास है 
किंतु तृष्णा के रहे बहकाव में 

हर दिशा में राह स्वागत में बिछी
मंज़िलो तक साथ जाने के लिए
और निश्चय था प्रतीक्षज में खड़ा 
जो ग़हें हम ध्येय पाने के लिय
राज पर हमने चुनी विपरीत हो
दाक्षयरे में एक थी चलती रही
इसलिए ही आस की का पियाँ सभी
बिन खिले ही सूख कर झरती रहीं 

और हम बस सूत्र इक थे खोजते 
चाहना के इस घने बिखराव में  

तितलियों के पंख की परछाइयाँ
पंखरी  पर ओस सी गिरती रहीं
गंध की उमड़ी हुई कुछ बदलियन
सामने आ ताक पर अटकी रही 
पर हमारी दृष्टि के आकाश का 
मरुथली भ्रमजाल ही सीमांत था
ध्यान उस पर दे नहीं पाए  कभी
जो सहज उपलब्ध अपने पास था 

पांडुलिपियां रह  गई थी अनखुली 
अर्थ बस ढूँढा किए अनुवाद में 

सब अधूरे ही रहे  ईजिल  टंगे 
कैनवस पर चित्र जितने भी बने
चाह जिनकी थी, दिखा पाए नहीं 
जो लगे दीवार पर थे आईने
हम स्वयं दोषी हमें मालूम था 
किन्तु साहस था नहीं, स्वीकारते
चाह थी हर बार चूमे जयश्री 
इसलिए ही रह गए हम हारते 

चाहना थी गुम्बदों पर जा चढ़ें 
और बस अटके रहे मेहराब में 

 

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