जीवन का जो अर्थ सिखाती रही एक अनपढ़ी किताब
इसीलिये मुर्झाये खिलने से पहले ही सभी गुलाब
पांखुर पांखुर हो छितराये हाथों में थामे गुलदस्ते
रही टूटती उंगली छूकर उड़ती हर पतंग की डोरी
राहें रहीं बिछाती पग पग पर लाकर के भूलभुलैय्या
मावस की रातें किस्मत में लिये आस की रही चकोरी
होकर प्रश्न उगे क्यारी में सभी अंकुरित किये जबाब
जीवन के जो अर्थ सिखाती रही वही अनपढ़ी किताब
जितनी पढ़ी किताबें सब थी केवल गल्प कथाओं वाली
सपनों वाले राज कुंवर थे निश्चित किये हुये शहजादी
बंधे हथेली की रेखाओं से सूरज चन्द्रमा सितारे
हो जाती मलयजी जहां पर उठती हुई भयंकर आंधी
निशि वासर के चक्र जहां पर डाल सकें न कोई दबाब
ऐसे स्वप्न नहीं दिखलाती रही एक अनपढ़ी किताब
हम हैं क्या, है चाह हमारी क्या ये नहीं जानने पाये
रहे खोजते सिर्फ़ उसी को जिसका न मिल पाना तय था
कफ़न ओढ़ कर सोई पूनम के आने का स्वप्न सजा कर
आंजुरि में भर ली वे रातें जिनमें स्वाद पराजय का था
चाह दिखें शफ़्फ़ाक सूरतें ओढ़े रहते किन्तु नकाब
छुई नहीं पर करें शिकायत, रही एक अनपढ़ी किताब
1 comment:
एक अनपढ़ी किताब-लाजवाब !
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