तुम पर निर्भर

मैंने तो शब्दों में अपने मन के भाव पिरोये सारे
तुम पर निर्भर, तुम जो चाहो वो ही इनका अर्थ निकालो
 
लिखता हूँ मैं शब्द हवा के झीलों में ठहरे पानी के
और पलों के जिनमें पाखी उड़ने को अपने पर तोले
तुम सोचो तो संभव वे पल होलें किसी प्रतीक्षा वाले
तुम चाहो तो हवा कुन्तलों की झीलें नयनों कि होलें
 
शब्द उच्छ्रुन्खल आवारा हैं इधर उधर भटका करते हैं
तुम पर निर्भर तुम चाहो तो गीत बना कर इनको गालो
 
मेरे शब्द गुंथे माला में फूलों की लिख रहे कहानी
तुमको उनमें पीर चुभन की दिखी और हो जाती गहरी
शब्दों ने था लिखा झुका है मस्तक कोई देवद्वार पर
तुमने ढूंढा करूँ प्रार्थना सुनती नहीं मूर्तियाँ बहरी
 
शब्द शब्द में प्रश्न छुपे हैं शब्द शब्द में उनके उत्तर
तुम पर निर्भर उत्तर ढूंढों या प्रश्नों को कल पर टालो
 
मेरे स्वर की,अभिव्यक्ति की  सीमाएं कुछ तुमसे कम हैं 
मैं अपने खींचे वृत्तों में रह  जाता  हूँ होकर बंदी
तुम पर निर्भर, तुम मेरी अभिव्यक्ति उड़ा ले जाओ नभ में
तुम चाहो तो शब्द न रहें तनिक भावना के सम्बन्धी
 
अधरों पर मेरे जो आईं बातें, तुम चाहो तो फिसलें
तुम पर निर्भर, तुम चाहो तो सरगम देकर इन्हें सजा लो

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