मुझे विदित हैं अपनी सारी सीमाएं
और तुम्हारी बढ़ती हुई अपेक्षाएं
बच्चे सी जिद चन्दा मुट्ठी में पकड़ें
आसमान को अपनी बाहों में जकड़ें
बहती नदिया पार करें जल पर चल कर
उड़ें क्षितिज के पार समय को पल पल कर
मरुथल पर बादल बन बरखा बरसायें
यही तुम्हारी मुझसे रही अपेक्षाएं
दूरी के प्रतिमान परों में बंध जाएँ
भंवरे बात तुम्हारी ही बस दोहरायें
कलियों की मुस्कानों से सज रहती हों
हम दोनों की दूरी में आ संध्याएँ
निशा सदा ही चंद्रज्योत्सना बिखराएँ
बढ़ती रहीं नित्य बस यही अपेक्षाएं
जो कि असंभव रहा वही हो ले संभव
दिखने से पहले सपने हो जायें सच
अभिलाषा का द्वार स्पर्श हो पारस का
चले इशारे ही पाकर सूरज का रथ
हवा करे संचय, ना कुछ भी बिखरायें
रही ज़िन्दगी से भी यही अपेक्षायें
1 comment:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
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