अब नहीं उपलब्धियों के वृक्ष पर आती बहारें
अब नहीं पौधें प्रयासों की पनपती क्यारियों में
भीगती है अब नहीं संकल्प के जल से हथेली
आस बोई पल्लवित होती नहीं फुलावारियों में
बढ़ रहा है धुंध की परछाई का विस्तार केवल
और निष्क्रियता,घटाएं व्योम से बरसा रहीं हैं
छाप जो भी पंथ पर छोडी कहीं भी थी पगों ने
उग रहे उनमें अगिनाती झाड़ियों के वन कंटीले
जिस किसी भी नीड़ से आशीष आश्रय का मिला था
हम उसी को ध्वस्त करते खिलखिलाते हैं हठीले
हो पराश्रित हम रहे, स्वीकारते लेकिन नहीं हैं
दंभ की भ्रामक ऋचायें बस हमें उलझा रही हैं
हम बने बैठे स्वयं ही तीसरा वह नेत्र शिव का
ध्वंस के ही चित्र बनते आये जिसके पाटलों पर
चक्रवातों की परिधि पर कांपते रहते सदा हम
चाहते हैं नाम बरखा के सुहाने बादलों पर
हम कभी सद्भाव की चूमे नहीं हैं गंध फ़ैली
किन्तु कहते हैं हमें अनूभूतियाँ तरसा रही हैं
थरथराते हैं परस यदि चांदनी का मृदु मिले तो
और यदि पुरबाइयों का छोर कोई बांह छू ले
तारकों की छांह आ भुजपाश में हमको भरे जब
होंठ पर आ जाएँ जब भी आप ही कुछ गीत भूले
हम स्वयं पहने अनिश्चय के घने लम्बे लबादे
कह रहे परछाइयों भ्रम बन हमें बहका रही हैं
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