वह मेरा मुट्ठी भरा आकाश है

जब सृजन के पल अपरिचित हौं घिरे उद्वेलनों में
शब्द की परछाईयाँ एकाकियत की धूप निगले
हो खड़ा आगे तिलिस्मी पेंच आ असमंजसों का
नैन की अमराईयों में रोष आ पतझर बिखेरे

उस घड़ी बन सांत्वना का मेघ जो बरसा ह्रदय पर
वह तुम्हारी प्रीत का विश्वास है केवल सुनयने

पंथ पर झंझाओं के फ़न सैंकड़ों फैलें निरन्तर
वीथियाँ भी व्योम की उल्काओं से भर जायें सारी
अंधड़ों के पत्र पर बस हो लिखा मेरा पता ही
धैर्य पर हो वार करती वक्त की रह रह कुल्हाड़ी

एक संबल बन मुझे गतिमान जो करता निरन्त
मोड़ पर इक चित्र का आभास है केवल सुनयने

अर्थ होठों से गिरी हर बात के विपरीत निकलें
स्थगित हो जायें मन की भावना के सत्र सारे
घाटियों से लौट कर आये नहीं सन्देश कोई
नाम जिस पर हो लिखा वह पल स्वयं ही आ नकारे


पगतली की भूमि पर जो छत्र बन आश्रय दिये है
वह मेरा मुट्ठी भरा आकाश है केवल सुनयने

कोई निश्चय हो नहीं पाता खड़ा,गिरता निरन्तर
आंजुरि में नीर भी संकल्प का रुकने न पाये
मंत्र कर लें कैद अपने आप में सारी ऋचायें
हाथ आहुति डालने से पूर्व रह रह कँपकँपाये

उस घड़ी बन कर धधकती ज्वाल जो देता निमंत्रण
वह अनागत में छुपा मधुमास है केवल सुनयने

5 comments:

Sunil Kumar said...

बहुत सुंदर गीत ,बधाई

प्रवीण पाण्डेय said...

उस घड़ी बन कर धधकती ज्वाल जो देता निमंत्रण
वह अनागत में छुपा मधुमास है केवल सुनयने

प्रेम के अध्याय बाँचती ये दो पंक्तियाँ।

विनोद कुमार पांडेय said...

अर्थ होठों से गिरी हर बात के विपरीत निकलें
स्थगित हो जायें मन की भावना के सत्र सारे
घाटियों से लौट कर आये नहीं सन्देश कोई
नाम जिस पर हो लिखा वह पल स्वयं ही आ नकारे

आज की यह प्रस्तुति भी बेहतरीन..धन्यवाद राकेश जी.

उपेन्द्र नाथ said...

very nice...........bahoot achchhe tarike se app ne yeh geet sajaya hai.

Girish Kumar Billore said...

शुभ-दीपावली
सुकुमार गीतकार राकेश खण्डेलवाल

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