मैं किरन से गीत लिखता

भोर की पहली किरन को ढाल लेता हूँ कलम में
और संध्या तक लहरते आंचलों पर गीत लिखता
सुरमई, ऊदे, सिन्दूरी, रंग मिलते हैं नये नित
कुछ धुंआसे और कुछ भीगे हुए टपकी सुधा में
कोई आँचल है बिखरते स्वप्न की किरचें समेटे
और कोई सामने आया मगर डूबा व्यथा में

मैं उमड़ती कल्पना के स्वर्ण पल का रंग लेकर
तूलिका से कोशिशें करता नये फिर रंग भरता
पाटलों के छोर से उड़ती हुई रसगंध थाम
खींचता हूँ चित्र मैं मधुमय हवा की डालियों पर
इन्द्रधनुषी रंग से उनका सजाता हूँ निरन्तर
कांच के टुकड़े रखे मैं पत्तियों की जालियों पर

बादलों के आंचलों से ले छुअन अहसास वाली
मैं सुधी के दर्पणों में बिम्ब बन बन कर के उभरता
बीज बोता हूँ सपन के मैं नयन की क्यारियों में
और अधरों पर उगाता रत्न जड़ कर मुस्कुराह
रोशनी के कुमकुमों से चीर देता हूँ तिमिर को
सौंपता हूँ थक गये पग को गति की कुलबुलाहट

मैं धरा के पत्र पर लिखता नये अक्षर कथा के
जिस घड़ी भी शाख पर से एक सूखा पात झरता

7 comments:

Udan Tashtari said...

मैं धरा के पत्र पर लिखता नये अक्षर कथा के
जिस घड़ी भी शाख पर से एक सूखा पात झरता


-अति सुन्दर भाई जी!

Shardula said...
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संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मैं उमड़ती कल्पना के स्वर्ण पल का रंग लेकर
तूलिका से कोशिशें करता नये फिर रंग भरता

बहुत सुन्दर गीत ...

प्रवीण पाण्डेय said...

पढ़कर मन मुग्ध हो गया।

रंजना said...

मैं धरा के पत्र पर लिखता नये अक्षर कथा के
जिस घड़ी भी शाख पर से एक सूखा पात झरता !

उफ़ !!! क्या कहूँ...

अद्वितीय !!!

रंजना said...

मैं धरा के पत्र पर लिखता नये अक्षर कथा के
जिस घड़ी भी शाख पर से एक सूखा पात झरता !

उफ़ !!! क्या कहूँ...

अद्वितीय !!!

Shardula said...
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