ज़िन्दगी

ज़िन्दगी ये न ईमेल कविताओं की
पढ़ लिया हो जिसे गुनगुनाते हुए
छन्द ये है नहीं प्रीत का लिख गया
कोई मन पर जिसे गुदगुदाते हुए
चित्र भी वो नहीं,भोर की रश्मियाँ
कूचियाँ ले दिवस में सजाती रहें
ज़िन्दगी अश्रु मुस्कान के पल रँगे
चन्द आते हुए चन्द जाते हुए

----------------------

ज़िन्दगी को निहारा सभी ने मगर
दृष्टि मेरी अलग कोण से है पड़ी
मुझको देकर गई भिन्न अनुभूतियाँ
आपसे,हो दिवस की निशा की घड़ी
सांझ ने सन्धि करते हुए यामिनी
से किये जितने अनुबन्ध, मैने पढ़े
मैं तलाशा किया उद्गमों के सिरे
दृष्टि जब दूसरी,फ़ुनगियों पे चढ़ी

------------------------

ज़िन्दगी एक चादर मिली श्वेत सी
बूटियाँ नित नई काढ़ते हम रहे
छोर को एक,छूकर चली जो हवा
साथ उसके किनारी चढ़े हम बहे
फूल पाये न जब टाँकने के लिये
हम बटोरा किये पत्र सूखे हुए
सांझ को फिर सजाते रहे स्वप्न वे
भोर के साथ जो नित्य ही थे ढहे

8 comments:

Shardula said...
This comment has been removed by the author.
प्रवीण पाण्डेय said...

भोर के साथ कितने ही स्वप्न ढह जाते हैं और हम वास्तविकता के धरातल पर आकर खड़े हो जाते हैं। सुन्दर पंक्तियाँ।

पारुल "पुखराज" said...

फूल पाये न जब टाँकने के लिये
हम बटोरा किये पत्र सूखे हुए

bahut sundar

Udan Tashtari said...

ज़िन्दगी ये न ईमेल कविताओं की
पढ़ लिया हो जिसे गुनगुनाते हुए


-सत्य वचन!!

ज़िन्दगी को निहारा सभी ने मगर
दृष्टि मेरी अलग कोण से है पड़ी


-उसी के तो काय हैं हम सभी....


ज़िन्दगी एक चादर मिली श्वेत सी
बूटियाँ नित नई काढ़ते हम रहे


-बस!! इसी तरह सजाते रहिये...देखिये, कितनी सुन्दर और सुसज्जित हो चली है.


बेहतरीन रचना!!

शारदा अरोरा said...

बहुत खूब ,
फूल पाये न जब टाँकने के लिए
हम बटोरा किये पत्र सूखे हुए
साँझ को फिर सजाते रहे स्वप्न वे
भोर के साथ जो नित्य ही थे ढहे

vandana gupta said...

बहुत सुन्दरता से ज़िन्दगी से परिचय कराया है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर...आनन्द आया पढ़ कर

विनोद कुमार पांडेय said...

राकेश जी, निशब्द हूँ.. ३ भाग में आपकी रचनाएँ दिल छू गई, जिंदगी को खूब पेश किया....धन्यवाद.अत्यन्त खूबसूरत प्रस्तुति..प्रणाम राकेश जी

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...