पास रह न सकी बून्द भर रोशनी
ज़िन्दगी मोम बन कर पिघलती रही
दिन उगा पर झपकते पलक ढल गया
रात को नींद आकर चुरा ले गई
दोपहर थी पतंगें कटी डोर से
सांझ आने से पहले कहीं खो गई
हाथ की , मेज की और दीवार की,
हर घड़ी ये लगा शत्रुता कर गई
छोड़ मुझको अकेला खड़ा राह में
और द्रुत हो गईं, पंथ में बढ़ गईं
हर निमिष बन मरुस्थल बिखरता रहा
कंठ में और बस प्यास उगती रही
बिम्ब धुंधले दिखाता रहा आईना
प्रश्न करता रहा वक्त आठों पहर
आस की क्यारियों को निगलता रहा
चाहतों का उमड़ता हुआ इक शहर
पूर्णिमा रुक गई जा तिमिर की गली
स्वप्न आये नहीं नैन के गांव में
गीत सावन के सारे प्रतीक्षित रहे
झूले डाले नहीं नीम की छांह ने
और उमड़ी घटा की लहरिया, गगन
के किसी कोण पर जा अटकती रही
पांव ने जिस डगर को बनाया सखा
वो बदलती रही नित्य अपनी दिशा
कौन सा पथ सही, कौन सा है गलत
आज तक इसका चल न सका है पता
चल रहे हैं निरन्तर कदम राह में
कोई गंतव्य लेकिन नहीं सामने
होते बोझिल पगों को न विश्राम का
एक भी पल दिया है किसी याम ने
नीड़ की एक परछाईं बस दूर से
मन में उगती हुई आस छलती रही
उम्र की वाटिका में खिले फूल की
गंध हर एक होकर अपरिचित रही
एक पुरबाई, जिसको निमंत्रण दिया
वो बही, किन्तु प्रतिकूल; होकर बही
आंजुरि में संजोई हुई पांखुरी
आंधिया आईं आकर उड़ा ले गई
हो सका न समन्वय निमिष मात्र भी
शब्द से भावना हो विलग रह गई
कल्पना दायरों में सिमटती हुई
एक परवाज़ की राह तकती रही
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5 comments:
पूरा का पूरा गीत बहुत सुन्दर..वाह!! बधाई...क्या बात है!!
कल्पना दायरों में सिमटती हुई
एक परवाज़ की राह तकती रही
--अति सुन्दर.
क्या बात है भाई. वाह ! आप की रचनाओं का असर ..... मुझ में व्यक्त करने की क्षमता नहीं.
अभिव्यक्ति के साथ-साथ तेवर भी प्रशंसनीय है , बधाईयाँ !
पास रह न सकी बून्द भर रोशनी
ज़िन्दगी मोम बन कर पिघलती रही
बहुत सुन्दर हैं ये पंक्तियाँ... बहुत ही भावपूर्ण ...पूरी रचना ही बहुत अच्छी लगी पर कुछ पंक्तियाँ दिलो-दिमाग पर एक छाप छोड़ जाती हैं ऐसी ही लगी मुझे ये पंक्तियाँ बहुत-बहुत बधाई...
ओह !
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