आँख की वादियों में फ़िसल कह गये
बात मन की, दो आँसू लरजते हुए
शब्द थे लड़खड़ाते हुए रह गये
होठ की पपड़ियों पर अटकते हुए
साथ, तय कर लिया सुर ने देना नहीं
इसलिये गूँज पाई नहीं सिसकियां
कुछ लगा है गले में रुका रह गया
फिर भी आ न सकीं एक दो हिचकियां
जो न चाहा कहें, वो उजागर हुआ
सारी अनुभूतियां शब्द बनने लगीं
मन की संदूकची में रखे थे हुए
भाव सहसा निकल इस तरह से बहे
कोई भाषा की उंगली को पकड़े बिना
बोल बिन, थरथराते अधर ने कहे
एक पल में समाहित सभी कुछ हुआ
नभ का विस्तार, सारी चराचर धरा
एक ही अर्थ में सब निहित हो गया
शून्य की मुट्ठियाँ, थाल मोती भरा
स्वप्न सी आँख में पल रही हर घड़ी
आज बीता हुआ वक्त बनने लगी
पंथ में जो उठे थे कदम वे सभी
लौट कर भोर की आये दहलीज पर
नीड़ पाथेय की पोटली को उठा
ले गया था सहज आँख को मींच कर
राह थक सो गयी ओढ़ कर चादरें
और गंतव्य ने अर्थ बदले सभी
जो अभी है, नहीं वो कभी था हुआ
और शायद न हो पाये आगे कभी
भोर, आते हुए सूर्य से हो विमुख
सांझ बनती हुई आज ढलने लगी
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6 comments:
जो न चाहा कहें, वो उजागर हुआ
सारी अनुभूतियां शब्द बनने लगीं
राकेश जी
हैरान हूँ की कहाँ से आप ऐसे शब्द और भाव ला पाते हैं. आप की रचनाएँ ऐसी हैं की जितना पढ़ें उतना आनंद देती हैं. विलक्षण लेखन... वाह वा..
नीरज
कल ही किसी से कह रहा था कि मेरा सौभाग्य है कि मुझे राकेश जी की कविता की किताब के प्रकाशन का मौका मिला है । पर दुश्वारी ये है कि सारी कविताएं इतनीं सुंदर हैं कि क्या छोड़ूं क्या रक्खूं मैं की हालत हो रही है उस पर आप हैं कि सुंदर से सुंदर गीत रचे जा रहे हैं रचे जा रहे हैं । बधाइग् एक और सुंदर गीत की
और ये रही सचिन तेंदुलकर की एक और सेंचुरी :)
kaun si pankti batau.n.....har shabda chhu gaye
ओह !!
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