संभल संभल जब उठते हैं पग, अमराई की राहगुजर पे
अरे रूपसि ! निश्चित मानो, लक्षण हैं चढ़ रही उमर के
धुंधली आकॄतियों के बिम्बों में मन उलझ उलझ जाता है
एक अधूरा छंद अधर पर पाहुन बन बन कर आता है
अभिलाषा की हर अँगड़ाई टूट टूट कर रह जाती है
निमिष मात्र भी एक बिन्दु पर ध्यान नहीं रुकने पाता है
हर इक सांझ लिये आती है बाँहों में सपने भर भर के
अरी वावली ! ध्यान रहे ये लक्षण हैं चढ़ रही उमर के
अनजाने ही खिंच आती हैं चेहरे पर रेखायें लाज की
गडमड होकर रह जाती हैं, बातें कल की और आज की
फूलों की पांखुर को करते, आमंत्रित पुस्तक के पन्ने
मन को करती हैं आलोड़ित ,बात रीत की औ; रिवाज की
मीठी मीठी बातें करने लगें रंग जब गुलमोहर के
सुनो रुपसि ! याद रहे, यह लक्षण हैं चढ़ रही उमर के
मन को भाने लगती हैं जब इतिहासों की प्रेम कथायें
चैती के आंगन में आकर सावन की मल्हारें गायें
पुरबाई के झोंके भर दें रोम रोम में जब शिंजिनियां
सात रंग पलकों की देहरी पर आकर अल्पना बनायें
आतुर हों जूड़े में सजने को जब फूल उतर अंबर के
रूपगर्विते ! मानो तुम ये लक्षण हैं चढ़ रही उमर के
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11 comments:
:) बहुत अच्छा !! राकेश जी।
सादर नमन
रिपुदमन
वाह, वाह, वाह..बहुत दिनों बाद इतनी सुंदर कविता पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मन खुश कर दिया आपने । बधाई स्वीकार करें !
रास्ते से पहले काँटे दिखते हो , सपनों से पहले हक़ीकत के खाके
ओ दूरदर्शी ,निश्चित मानो, लक्षण हैं चढ़ रही उमर के
Beji ki panktiyon me chadh rahi umar aur apki kavita kee chadh rahi umar hain to ekdam alag alag see....par beji apni do lines se bhee bhaari hee padi hain, rakesh jee... :)
Baki apki kavita to saras, saral, sangeetmay, uar bas vaah hee kahunga.
रवीन्द्र- मुझे पता है तुम हिन्दी में लिख सकते हो, इसलिये आशा करता हूँ तुमसे हिन्दी में ही सन्देश मिलेंगे. बेजी, मनीश और रिपुदमन : आप सभी का धन्यवाद
चढ़ रही उमर का एक बिम्ब बड़ी स्पष्टता और सहजता से उकेरा है..बधाई :)
वाह राकेश जी !!!!!!
वो लड़ना, झगड़ना,रूठना और मनाना
किस्से सभी ये पुरानें हुए हैं
वो कतरा के छुपनें लगे हैं हमीं से
महबूब मेरे सयाने हुए हैं ।
चढ़ती तरुणाई के अहसास को जिस प्रविध रुप में आपने रचा है वह अत्यंत अनूठा है,बहुत कुछ नयापन है इसमें…
राकेश जी आपकी ये रचना कुछ हटकर है ....: बहुत खूब :) आपको साधुवाद।
इस प्रेमसिक्त झिड़की के बाद भी मैं कभी कभी रोमन मे ही टिप्प्णी कर ही दूं, तो एकबार फ़िर इसका स्वाद चखना चहूंगा.....मैं अशुद्धि रहित और तीव्र देवनागरी लिखने के लिये प्रयासरत हूं..... धन्यवाद ।
भाई रवीन्द्र:-
स्वरों की वाटिका मे पुष्प की मुस्कान है हिन्दी
मिला है संस्कॄति के शोध से संधान है हिन्दी
सजी है आज मस्तक पर अखिल संसार के टीका
हमारी आन है ये शान है पहचान है हिन्दी.
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