राजपद पर कर दिया आसीन तुमको आज सब ने
भूलना तुमको नहीं है, सिर्फ़ ये मंज़िल नहीं है
है क्षणिक विश्राम का पल, फिर उठो पाथेय बांधो
खोलने तुमको नये आयाम प्राची के परे जा
तोड़ कर सीमा क्षितिज की फिर उगाने नव उजाले
सूर्य से कितनी अपेक्षा राह को रोशन करे वो
जो तुम्हारे हाथ से दो चार उंगली दूर पर है
हो विदित तुमको, वही है ध्येय औ पाना वही है
जानते हो कोष संचित साथ न देता सदा ही
एक भ्रम ही है भुलावा जो सदा देता रहा है
जो मुलाम्मे में छुपा है ध्यान उसकी ओर दो तुम
जीतता है वह, स्वयं को जान जो लेता रहा है
राजपद के राजपथ का पग प्रथम विस्मॄत न करना
नीड़ को पाथेय कर के पग बढ़ाना ही सही है
बिम्ब दर्पण के सुखद लगते मगर आकार धूमिल
फूल कागज़ के न देते गंध रहते हों भले खिल
बीज बो तुमको अषाढ़ी मेघ करने भाद्रपद के
है तभी संभव बनेगी राह खुद ही एक मंज़िल
आज की ऊँचाई से, आकाश को भर लो भुजा में
आस की बहती हवा ये आज तुमसे कह रही है
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4 comments:
प्रेरणा पूर्ण और सुंदर।
Bahut acha likha ha rakesh ji prernadayk.aapko bdhai.
धन्यवाद अनुराग भाईजी और भावनाजी दोनों को शब्द आपको भाए मेरे आभारी हूँ आभारी हूँ
अपने को दर्पण दिखलाना, है अपनी ही आवश्यकता
खुद कोरखूं भुलावा देकर , मैं न ऐसा दरबारी हूँ
आज की ऊँचाई से, आकाश को भर लो भुजा में
आस की बहती हवा ये आज तुमसे कह रही है
-सचमुच प्रेरणा का संचार करने वाली कविता-बहुत बधाई.
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