संध्या की नजरें धुँधलाने

 

संध्या की नजरें धुँधलाने

दिन भर चल चल कर थका हुआ सूरा अलसाने लगता है
तब ललक प्रतीची सिंदूरी आँचल की छाया कर देती

संध्या की नजरें धुँधलाने लगती हैं जब धीरे धीरे
अम्बर नीचे झुकि कर देता पालकों को थोड़ा सुरमई
तब दूर कहीं से झोंकों के दामन को पकड़ के अपने
यादों की बारादरियीं में बजती धीमी सी शहनाई

तब खुले निशा के वातायन से किरणों की डोरी थामे
इक सुखद मधुर अनुभूति उतर बागों में मुझको भर लेती

गुलमोहर की पंखरियों से छलके हुए मधुप के कुछ चुम्बन
तितली के पंख, कैनवस कर तब चित्र उकेरा करथे हैं
गुलदानों से अंगड़ाई ले जागी ख़ुशबू के उमड़ मेघ
साँसों की गलियों में आकर मृदु गंध बिखेरा करते हैं

सुधियों के धूमिल पन्नों से धूलों की परतों को बहार
कच्चे यौवन की घटनाएँ मुझको विभोर आ कर देती

नदिया के तट पर नीम तले अधलेटि अलसी दोपहरी
जितने थे लिखे गिरे पत्तों पर टेढ़े मेढ़े कुछ अक्षर
उनमें उभरे थे स्वस्ति चिह्न सहसा ही कुछ अनुबंधों के
लगता था समय चक्र की गति उस पल पर ही  थी गई  ठहर

उनके ही बिम्ब उभरते हैं यामिनी के तारन आँचल में
उस आलोड़न की आवृतियाँ मन में हिलोर ला भर दती


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