यायावर वनपकी मन का

 



मन का आवारा वन पाखी
ताका करता हर एक दिशा
फिर पंख फड़फड़ा रह जाता

तय की है उसने पगडंडी
चढ़ बही हवा के छोरों पर
उन तथाकथित गंतव्यों की
लौटा है साथ लिए झोली
अपने कोशों को लूटा, गाँव
पूँजी अपने मंतव्यों की

हर एक दिशा में यही हाल
पूरब पश्चिम, उत्तर दक्षिण
कुछ समझ नहीं उसको आता

उगते देखे चौराहों पर
मौसम ने बदली जब करवट
भ्रामक फूलों की नई फसल
केवल बदली हैं शाखायें
अंकुर वे ही प्रस्फुटित हुए
जो टहनी से कल गए फिसल

बरसों से घिसा पिटा ये ही
इतिहास अर्थ अपना खोकर
फिर फिर अपने को दुहराता

आती है उजड़ी गलियों में
पथ भूल वहीं, गुजरी थी कल
जिस द्वारे से उठ कर डोली
धुल चुके रंग, है स्याह वसन
चलते राजस गलियारों में
लेकर फिर से सूरत भोली

अमृत का देकर नाम आज
यह खोटा सिक्का वही पुनः
लाकर के भूनवाया जाता

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