दर्पण कहीं पिघल न जाय

 अरे सद्यःस्नात रूपसी! बिम्ब न अपना अभी निहारो

खिली रूप की तपी धूप से दर्पण कहीं पिघल न जाए

गुँथी हुई मुक्ता वाल्लरियाँ कजरे मेघों से चिकुरों में
उनसे प्रिज़्मित रंग धनक के एक पुंज में घनीभूत है
जिससे दमक रही हर वादी. वन विहार एकांत समुच्चय
गोचर और अगोचर सब ही एक उसी के वशीभूत हैं

अभी अभी नादिया के जल की सिहरन थोड़ा शांत हुई है
परछाई को छू कर तेरी से जल तरंग फिर मचल न जाए

पलक  खोल कलियों के पाटल बाट तुम्हारी जोह रहे हैं
चम्पा जूही और चमेली, भुजबँधन   बनने को आतुर
बेला गुँथा स्वयं गजरे में और गुलाब की मृदुला पाँखरी
सोच रहीं हैं बनें किस तरह पग में बन गंधों के नूपुर

सोच समझ कर करना बगिया में प्रवेश धीमे शतरूपे
पदचापों की मलयज़ छूकर मौसम कहीं बहक ना जाए

कलसाधिके!  मंगल वंदन को आतुर है दिवस तुम्हारा
लेकर पूजा थाल चरण जब रखना अपने, देवालय में
प्राण प्रतिष्ठित प्रतिमा में जो, विचलित भी शायद हो सकते
देख तुम्हारी आभा छिटकी अवनि व्योम सम्पूर्ण निलय में

 

अर्घ्य चढ़ाओ कलश लिए तुम ही नतमस्तक अरे मानिनी

विश्वामित्री संकल्पों का निश्चय कहीं बदल न जाये


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