कनक तुली से चन्दन काया
पर कुंतल के मेघ घनेरे
चन्दन वन की राहों में ज्यों
ताक लगाए खड़े सपेरे
नील झील की लहरों से जब डुबकी लेकर निकली रूपसि
लगा सूर्य निकला हो जैसी , लगे भोर के पल मुस्काने
गात उगी हो खाद्याहानों में
ज्वार छरहरी ले अंगड़ाई
या कि सरो के इक पौधे पर
आइअभी अभी तरुणाई
झुकी हुई कचनारी शाख़ों ने गलबहियाँ डाक दुलारा
कलियों के सहचर होकर तब लगे मधुप नव राग सुनाने
कंगन गढ़े चमेली ने आ
और मोतिया गजरा गूँथे
कटिबंधन को हरसिंगार था
पुरवाएँ नूपुर बन गूंजे
ऋतु गंधी समीर ने ली आ यौवन की पहले अंगड़ाई
दिशा दिशा हो मंत्रमुग्ध तब अलगोजों को लगी बजाने
षोडस शृंगारों की पंक्ति
सज्जा करने को लालायित
मेहंदी बिखरी, कुंकुम चमका
हुआ अलकतक भी अभिरंजित
तौं बिखरे यौवन की कंचन धूप सुनहरी अंगड़ाई में
इंद्रधनुष उतरे अम्बर से पालकों को लग गाए सजाने
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