शब्द रह जाते अबोले

 




भावनाओं में बदलते मौसमों की रंगतें हैं
ले रही करवट नयी ही आज उभरी चाहतें  है
है खड़ा ऋतुराज आ कर के शिशिर के द्वार लगता
कल्पना में हो रहीं कुछ  कुछ अजब सी आहटें हैं

आज सुधियों ने विगत के कुछ भुलाए पृष्ठ  खोले
आए  सम्मुख चित्र जिनमे  शब्द थे रहते अबोले

गुलमोहर की छांव वाली एक बासंती दुपहरी
और अधलेटी हुई वह स्वर्ण सी काया छरहरी
कुंलों में ले रही अँगड़ाइया काली घटाएँ
मेहंदियों से बात करती वे हथेली दो, रुपहरी

दृश्य ये बहते शिरा के रक्त में तूफ़ान घोले
थरथराते अधर लेकिन शब्द रह जाते अबोले

दॄष्टि  के वातायनों से वे निगाहें झांकती सी 
प्रीत की गहराइयों का भेद  जैसे आंकती सी 
बिन उठाये प्रश्न अपने उत्तरों की खोज करती 
हर घड़ी अनुराग के पल, और ज्यादा मांगती सी 

बह रही संप्रेषणाएँ बिन हृदय के द्वार खोले 
ये अनोखे पल कि जिनमें  शब्द तो रहते अबोले 

चूनरी के छोर रह रह उँगलियों से थे उलझते
झनझना कंगन निरंतर चूड़ियों से बात करते 
और त्रिवली में भँवर पड़ते हुए वे सरसियों के
होंठ हिलते ही लगे कुछ मोगरे के फूल झरते

कल्पनाएँ कल्पना के और भी आयाम खोले 
गीत में ढलने लगे वे भाव जो रहते अबोले

राकेश खंडेलवाल 
नवम्बर २०२१ 











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