सूखे पत्तों पर बूँदों का

 


दे विदा शरद  को दवारे से, हेमंत कर रहा अब नर्तन 
सूखे पत्तों पर बूँदों का यह मधुर छेड देना सरगम

चल पड़े शरद के पीछे ही शाखों से हो पीले पत्ते
फिर लगे चूमने दूबों पर रातों में झरती हुई  ओस
झुरमुट से झांक रही गूपचुप तारों की छिटक रही किरणे
हर पल अलसाया चलता है पूरे मौसम में ढाई कोस 

दोपहरी ढलते ढलते ही तम आकर पाँव पसार रहा
फिर शमादान में  शमओं की बस होती मद्दम सी थिरकन 

उगती है भोर उबासी ले झीने कोहरे के पर्दे में
अंगड़ाई ले उठता सूरज मुख देख झील के पानी में 
बादल की ओढ़ रज़ाई को बिस्तर में पुनः सिकुड़ जाता 
रस्ता तकती रह जाए धूप इक भूली हुई कहानी में 

थक थक कर बूढ़ी हुई साँझ  चलती है हाथ लुकटी ले 
रातों पर चढ़ते यौवन का यह अल्हड़ और खिलंडरपन

नदिया के तट का सूनापन कुछ और हो रहा एकाकी
पाखी दक्षिण दिशि को जाकर अब नया बसेरा करते हैं
देहरी बस कान लगती है कोई आहट सुन पाने को
लेकिन राहों के सभी मोड़ जा और कहीं अब मुड़ते हैं 

घाटी के पार क्षितिज पर बस टँक गया शून्य ही दिखता है
बासंती सपनों का आशा नयनों में आँज रही अंजन 
नवम्बर  २०२१ 











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