कोई नाम तुम्हारा ले तो
आख़िर क्या है मेरा परिचय
मेरा परिचय
आज अचानक गूँज उठी है प्राणों में सुधि की शहनाईपूछ रही इस गहन शून्य में, आख़िर क्या है मेरा परिचय
एक नाम है जो केवल आधार रहा है सम्बोधन का
चेहरा एक चढ़े है जिस पर कई मुखौटे बीते दिन के
अपनी नज़रों के प्रश्नो से रहा चुराता अपनी नज़रें
रहा देखता मुट्ठी में से रहे फिसलते पल छन छन के
धड़कन की खूँटी पर टाँकी सासों की डोरी बट बट कर
लेकिन जीवन की चादर में क्या कुछ कर लाया है संचय
रहा देखता पीछे मुड़ कर शेष न था पगचिह्न कहीं भी
और राह की भटकन का भी कहीं कोई उल्लेख नहीं है
आज यहाँ इस दोराहे पर हुआ दिग्भ्रमित सोच रहा मैं
प्रतिध्वनि बन कर आने वाल अब कोई संदेश नहीं है
यायावर बन कर राहों की मापी हैं दिन रात दूरियाँ
फिर भी क्या मेरे गतिक्रम से राहों का विस्तार हुआ क्षय
एक कथा जिसको दोहराते आये कवि, विक्षिप्त दोनों ही
मुझको भी तो व्यसन रहा उस सरगम को ही स्वर देने का
सुनता कौन? महज है टिक टिक टंगी हुई दीवार घड़ी की
आज सोचता अर्थ मिला क्या यूं ही जीवन भर रोने का
जीवन भर व्यापार चला है फिर भी संचित हुआ शून्य ही
यहाँ तिमिर का उजलाहट से होता रहा नित्य क्रय विक्रय
सन्नाटे का शासन है
पुराने ढंग से फिर पत्र कोई
मैं सोचता हूँ तुम्हें लिखूँ अब
पुराने ढंग से फिर पत्र कोई
औ जोड़ दूँ सब बिखरते धागे
तितर बितर हो गए समय में
वे भाव मन के जो पुनकेसरों के पराग कण में लिपट रहे हैं
जो गंध में डूबती हवा की मधुर धुनों में हुए हैं गुंजित
बुने हैं सपने हज़ार रंग के निखारते शिल्प अक्षरों का
उतार रखते जिन्हें कलम से हुआ है हर एक रोम पुलकित।
गुलाब पाँखुर कलम बना कर
भिगो सुवासों की स्याहियों में
करूँ प्रकाशित वे भाव अपने
जो उमड़े अक्सर ही संधिवय में
गगन के विस्तृत पटल पे अंकित करूँ सितारों से शब्द अपने
या राजहंसों के फैले पर पर लिखूँ निवेदन सतत प्रणय का
मैं चाहता हूँ सितार तारों की झनझनाहट अभिव्यक्त कर दूँ
उन्हें बना कर पर्याय अपने लगन में भीगे हुए हृदय का
मैं गुलमोहर के ले पाटलों को
चितेरू मेंहदी की बूटियों में
औ फिर रंगूँ अल्पनाएँ पथ पर
जो साथ चल कर सका था तय मैं
कब टेक्स्ट में आ ह्रदय उमड़ता न फ़ेसटाइम में बात वो है
जो पत्र में ला उकेर देती है तूलिकाएँ रंग अक्षरों से
कब व्हाटसेप्प में हुआ तरंगित वह राग धड़कन की सरगमों का
जो नृत्य करता हुआ बजा है गुँथे शब्द के सहज स्वरों में
मैं सोनजूही के फूल लेकर
दूँ गूँथ वेणी के मोगरे में
औ सिक्त होकर विभोर हो लूँ
तुम्हारे तन से उड़ी मलय में
प्रार्थना के ये अधूरे गान
प्राण की वट वर्तिकाएँ दीप तो निशि दिन जलाए
वाटिका से पुष्प चुन कर साथ श्रद्धा के चढ़ाए
सर्व यामी मान कर आराधना करता रहा मैं
आज जाना वाक् हीना श्रव्य हीना मूर्तियाँ है
प्रार्थना में फिर निरर्थक गान गाकर क्या करूँगा
तुम कहे जाते रहे करुणानिधानी , तो बताओ
आर्त्त नादों से घिरे तुम, है कहाँ करुणा तुम्हारी
तुम बने थे कर्मयोगी और योगेश्वर कहाए
हो कहाँ तुम? आज कल योगी बने हैं बस मदारी
व्यर्थ लगती हैं सभी सम्बोधनों की पदवियाँ तब
मैं तुम्हारे नाम को देकर विशेषण क्या करूँगा
डिग रही है आस्था, बैसाखियों पर बोझ डाले
और नैतिकता समूची टैंक रही है खूँटियों पर
स्याह काले कैनवस पर दृष्टि को अपनी टिकाए
मानवीयता है प्रतीक्षित रंग आए कूँचियों पर
मरुथली झंझाओं ने घेरे हुए हैं द्वार गालियाँ
बध रहे इस शोर में मल्हार गाकर क्या करूँगा
जो थी शोणित में घुली निष्ठाएँ पहली धड़कनों से
टूटती हर साँस के पथ पर तिरोहित हो रही हैं
मान्यताओं की धरोहर जो विरासत में मिली थी
इस समय के मोड़ पर आ, मुट्ठियों से रिस रही हैं
जब कसौटी कह रही है पास के। विश्वास खोटे
मैं अधूरी आस के प्रासाद रच कर क्या करूँगा
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