सूरज की छवियाँ दिखलाने


जो कल तक छलते थे हमको सपनो के आश्वासं देकर
आए है इस बार हमें वे सूरज की छवियाँ दिखलाने

वायदों की कजराई  ने थे रोज  साँझ नयनों में आँजे
देते हुए  दिलासा उगती हुई भोर में सच हो लेंगे
किन्तु भोर की प्रथम रश्मि के आते आते हुए तिरोहित
संभव रहा नहीं फिर वे इक अंश मात्र भी शिल्पित फोगे

कितने बरस बीतते आये, एक इसी धुन को दोहराते
वे आये हैं उन्ही धुनों को नए राग में फिर सिखलाने

ढलते हुए और नव उदिता सूरज की छवियों का अंतर
कब कर पाई है अभाव की ऎनक के पीछे से नज़रें
इश्क़ मोहब्बत की ग़ज़लों की हों या बासी अख़बारों की
तरसी हुई आस को लगती एक सरीखी सारी सतरें

महीने भर के रोजे रख कर जो आतुर है इफ़्तारी को
वे लाए है उसको मीनू अगले महीने  का समझाने

सूरज की छवियाँ बदली कब, बदले मौसम की करवट से
नयनी की मरीचिकाओं ने ही हर बार रखा भरमाकर
रंग रश्मियों ने तो बदला नहीं कभी भी ऋतु हो कोई
कुछ रंगीन काँच के टुकड़े भ्रमित करें उनको छितराकर

उतर चुकी है चढ़ी कलाई की एक एक कर सारी परतें
वे लाये हैं  खोटे सिक्के एक बार फिर  यहाँ भुनाने

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