बसंत ऋतु

जो बसन्ती चादरों का स्वप्न था
बर्फ़ की इस शुभ्रता में खो गया
आपने दे दी शिशिर को जो विदा
आ यहाँ उसका बसेरा हो गया
राह पर, पगडंडिय्पं-दालान में
है असंभव पां टिक पायें कहीं
शून्य से जब अंश नीचे दस गिरा
तापमापी यंत्र हो चुप रह गया. 

और हम पंचांग में अंकित रहे 
पंचमी के ज़िक्र को पढ़ते रहे 

शारदे के हाथ से वीणा मिली 
उंगलियां झंकार लें, असफल रही  
हाथ को जकड़े शिथिलतायेँ रहीं 
कोई अक्षर लिख नहीं पाए कहीं 
देह पर  तह बन रहे अटके कई 
कोट,स्वेटर और मफलर टोपियां 
ओढ़ कर हस्त्राण भी, ठिठुरा करी 
कंपकंपाती हाथ की सब उंगलियां 

है बसन्ती ऋतु कलेण्डर कह रहा 
दिन मगर सब शीत में जकड़े रहे 

नील अम्बर बादलों में खो गया
बूँद गिरते भूमि पर जमती रही
पीत आभा फूल कलियों की गुमी
बर्फ़ की तह के  तले जमती रही 
सूर्य रथ की है तितर वल्गाएँ सब
 भूल प्राची की प्रतीची की दिशा 
देख नभ को जानना सम्भव नहीं 
नाम मौसम का ,समझ पाना पता

और मौसम की ठिठोली देखते 
दाँत में बस उँगलियंधरते rahe

1 comment:

Udan Tashtari said...

जो बसन्ती चादरों का स्वप्न था
बर्फ़ की इस शुभ्रता में खो गया...वाह

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