रात का श्रृंगार करती चाँद की उजली विभाएँ
और दिन को आ सजाती धूप की अनगिन शिखाएं
फागुनी रसगन्ध में डूबी हुई हर इक दिशा है
चेतिया धुन में हवाएं लग रही हैं गीत गाने
मोरपंखी साध छेड़े सांस में शहनाईयो को
लग रहीं हैं धड़कनों पर पैंजनी अब गुनगुनाने
मौसमी इन करवटों पर आओ सुधबुध भूल जाएँ
कर रहीं श्रृंगार दिन का धूप की अनगिन शिखाएं
खेत की पगडंडियों पर फिर लगी चूनर लहरने
दृष्टि के आकाश पर आकर बिछी चादर बसंती
झूमती अंगनाइयों के संग पनघट पर उमंगें
भावनाओं की गली में प्रीत की बंसी सरसती
कल तलक निर्जन, सजीं हैं दुल्हनों सी आज राहें
और दिन को रँग रही हैं धूप की अनगिन शिखाएँ
लग गई हैं कोंपलें शाखाओं पर फिर सुगबुगाने
भोर को देते निमंत्रण आ पखेरू चहचहाते
चल पड़े निर्झर बिछौना छोड़ कर गिरिश्रृंग वाला
और लहरों पर बिखरते मांझियों के बोले गाते
जो बिखेरे रंग इन्द्रधनुषी, दिशाओं में प्रक्रुति ने
हम उन्हीं में डूब कर नूतन उमंगों को सजायें
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