तुमको, मुझको, सब को घेरे अपने बियावान सन्नाटे
दूर दूर तक पत्ता तक भी हिलता नजर नहीं आता है
उगी भोर से संध्या के ढलने तक बढ़ती आपाधापी
बाहर भीड़ें छील रही है राहों पर चलते कांधो को
अधरों पर चिपकी मुस्कानों के परदे से झाँके कुंठा
और विषमताए गहराती है मन पर छाये अवसादों को
बुझी आस पर मौन कलपती टूटे सपनो की बाँसुरिया
कोई सिसकी का स्वर भी तो आकर नहीं सँवर पाता ही
आवारा राहों पर ख़ुद को छलते छलते चलते है सब
ज्ञात भले है सारी राहें एक वृत्त में बँधी हुई है
दिशाहीन गंतव्य हीन बस गतिमय रहना ही निश्चित है
कठपुतले हैं, डोर न जाने किन हाथों में सधी हुई है
चाहत एक लुभाती प्रतिपल एक अदेखी उस मंज़िल की
जिसका ज़िक्र नहीं दरवेशो से भी कोई सुन पता है
लौटी वापस सूनी नज़रें द्वार खटखटा दिशा दिशा के
कोई चेहरा नहीं जड़ी हो जिस पर चिप्पी पहचानो की
तथाकथित परिचय की सीमा, है मरीचिका अपनेपन की
अर्थहीनता बतलाती है कृत्रिमतायें मुस्कानों की
शायद कल का सूरज कोई परिवर्तन का अवसार लाए
इसी आस को ढोते ढोते पूरा समय गुज़र जात। है
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