गीत बने अधरों पर आते


व्यस्तताओं के आँकड़ों में उलझे हुये दिवस की सारिणी से विलग होकर एक अजनबी से पल ने चेतना के द्वार पर दस्तक देते हुये बताया कि साधनारत यह मन माँ शारदा के चरणों में गीत कलश से छलकाते हुये आठ शतदलों की पुष्पान्जलि अर्पित कर चुका है. अतएव आज यह आठसौंएकवीं बून्द गीतकलश से माँ शारदा के चरणों में प्रस्तुत है.


वेदव्यास की अमर कथायें जिन्हें शब्द दे गये गजानन
भोजपत्र पर वाल्मीकि ने जो अंकित कीं राम कथायें
रामचरित मानस जो गंगा के तट पर तुलसी ने गाया
सूरदास ने वर्णित कीं जो माखनचोरी की गाथायें

इनको ही आधार बनाकर मेरे भाव उगा करते हैं
जो वीणा के तारों को छू गीत बने अधरों पर आते

काशी विश्वनाथ आरति के सुर सूरज की अगवानी में
देवसलिल की धाराओं में बोते हैं नूतन इक सरगम
पाखी के कुछ पंख फ़ड़फ़ड़ा उद्वेलित करते समीर को
उसकी चंचलताओं में घुल जाती हैं भावों की सिहरन

मैं उनको ही चुन चुन कर के शब्दों की नैवेद्य सजाता
आँजुरि में से फ़िसल शारदा के चरणों पर वे गिर जाते.

दिलवाड़ा की दीवारों पर अंकित संस्कृतियों का चित्रण
मीनाक्षी, कोणार्क, अलोरा और अजन्ता का अनुमोदन
कुतुब, सीकरी, ताजमहल से पद्मनाभ की गर्भगुफ़ा तक
जमना की रेती पर लेता अंगड़ाई महका वृन्दावन

बन्धी हुई इनके धागों में हाथों में यह थमी लेखनी
जिससे निस्रत शब्द स्वत: ही भित्तिचित्र होकर टँक जाते

किसी नववधू के नयनों में रहा छलछलाता जो पानी
उसमें रहीं तैरती आगत की कुछ इन्द्रधनुष आभायें
या वैधव्य तुषारावृत के निर्जन सी सूनी अंखियों में
जौहर करती हुई निरंतर जीवन की संचित समिधायें

आलोड़ित कर देती हैं ये मन की तंत्री की हर सरगम
गीत, गज़ल औ छन्द सभी बस इनके ही रंगों रँग जाते

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