कांच की दीवार के उस पार् तुम, इस पर मैं हूँ
हैं निकट, भुजपाश में बन्ध बैठ पाना पर असंभव
खिंच गई रेखाये अपने मध्य में हर बार आकर
अनकहे कुछ दायरों
ने
पंथ को बन्दी बनाया
हम प्रयत्नों में अथक जुटते रहे हर भोर संध्या
पर मिलन का शाश्वत पल एक हमको मिल न पाया
पार
तो करती रही है ज़िन्दगी बाधाएं पल पल
मध्य
की
सीमाओं
को है तोड़ पाना पर असंभव
चल रहे है समानांतर उद्यमो के
,
प्राप्ति के पथ
और
अ
नुपातित प्रयत्नों से रही उपलब्धियां है
पंथ को कर
ता
विभाजित आ कोई आभास धुंधला
मील
बन बढ़ती रहीं ये सू
त
भर की दूरियां है
बिम्ब के प्रतिबिम्ब के सब आईने तो तोड़ डाले
उद्गमो से बिम्ब के
,
नजरें बचाना पर असंभव
पारदर्शी चित्र संन्मुख पर न उतरे आ नजर में
तृप्ति हर इक बार रहती अर्ध, डंसती प्यास धूमिल
कुछ अदेखी कंदराएँ घेरती आकार बिन, मन
कशमकश असमंजसों में उलझती आ निकट मंज़िल
टूटती सीमाएं अगवानी सदा करती मिलन की
मोह ओढी चादरों का छोड़ पाना पर असंभव
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टूटती सीमाएं अगवानी सदा करती मिलन की
मोह ओढी चादरों का छोड़ पाना पर असंभव
-वाह
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