मैं गिरा जब जब गिरा हूँ एक निर्झर की तरह
मैं
बिखर कर हो गया हूँ एक सागर की व्ज़ह
है मेरा विस्तार नभ की नीलिमा के पार भी
मैं किनारा हूँ समय का और हूँ मंझधार भी
मैं प्रणय की भावना के आदि का उद्गम रहा हूँ
और मै ही वीथियों में उम्र की हूँ एक सहचर
मैं ही हूँ असमंजसों के चक्र काजो तोड़, निर्णय
हर घिरे तम
को
रहा हूँ सूर्य का मै एक परिचय
मैं अनुष्ठुत हो रहे संकल्प की आंजुर रहा हूँ
और मै नि
श्चय
सदा भागीरथी बन कर बहा हूँ
मै कलम जो उद्यमों की स्याहियों मे डूब कर के
भाग्य की रेखाओं को लिखता रहा फिर से
बदल
कर
भावनाओ को सहज अभिव्यक्तियाँ दे शब्द हूँ मैं
और शब्दों के परे जो है निहित वह अर्थ हूँ मैं
जो निरंतरता बनाये रख रहा सिद्धांत मैं ही
मैं ही अनुशासित नियोजन और हूँ उद्भ्रांत मैं ही
मैं भ्रमित अवधारणाओं में दिशाओं का समन्वय
चीर कर सारे कुहासे लक्ष्य बन आता निखर कर
जो कि गीतायन रहा है गीत में, बस मैं वही हूँ
पृष्ठ पर बीते संजय के जो हुई अंकित, सही हूँ
आदि से पहले,क्षितिज के बाद तक बस एक मैं हूँ
जो रहा निश्शेष फिरभी रह गया जो शेष मैं हूँ
मैं तुम्हारे और अपने वास्ते बस आइना हूँ
पारदर्शी, जो उजागर कर रहा सब कुछ परख कर
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