किसी अधलिखे छंद सरीखी
तितर बितर यादो को लेकर
बिना बहर के कही गजल सी
बीत रही दिन रात ज़िन्दगी
आपा
धापी और उधेड़-बुन
अफ़रा तफ़री सांझ सवेरे
पता नहीं दिन कब उगता है
कब आकर के घिरे अंधेरे
आफ़िस के प्रोजेक्टों से ले
घर के राशन की शापिंग तक
बिना बैंड बाजे के चढ़ती
ज्यों कोई बारात ज़िन्दगी
कुरता, शर्ट
,
शेरवानी हो
या हो जीन्स और इक जैकिट
लंच रेस्तरां में करना है
या घर से ले जाना पैकिट
वीकएंड के प्रोग्रामो की
सूची में उलझे मनडे से
चक्कर घिन्नी बनी हुई है
खड़ी हुई फुटपाथ ज़िन्दगी
किसका फोन नहीं आता है
मिला कौन न एक बरस से
किसने आव भगत अच्छी की
किसके घर से लौटे भूखे
कब अगला सम्मलेन होगा
और कौन क्या क्या लायेगा
इन आधारहीन प्रश्नों में
उलझ रही बेबात ज़िन्दगी
2 comments:
अद्भुत
बहुत खूब रही आपकी कविता ज़िन्दगी भी अजीब है ।।
मुझे भी पढ़े againindian.blogspot.com
Post a Comment