लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर, काले अक्षर ही निशि वासर
समय मांगता लिखें अमावस के पन्नों पर धुली चाँदनी
बैठी रहीं घेर कर हमको पल पल बढ़ती आशंकायें
यद्यपि ज्ञात हमें था वे सब की सब ही आधारहीन हैं
साहस नहीं जुटा पाये हम चीरें ओढ़ा हुआ धुंधलका
रहे दिलासा देते खुद को हम तो स्थितियों के अधीन हैं
लिखते रहे श्वेत पृष्ठों पर हम फ़िल्मी गीतों की ही धुन
रही मांगती सरगम हमसे हम वीणा की लिखें रागिनी
दुहराई हर उगे दिवस ने वही पुरानी एक कहानी
भूख, गरीबी, व्यवसायिकता, बातों में कोरा आश्वासन
इतिहासों ने कहा बदल दें हम अब तो घिस चुका कथानक
लेकिन अक्षमतआओं के जाले में घिरा रहा अपना मन
लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर, मूक समर्पण के हमने स्वर
कहती रहीं घटायें हमसे, लिखें कड़कती हुई दामिनी
नित पाथेय सज़ा चलते हम निश्चय की बैसाखी लेकर
रख देंगे संध्या ढलते ही हम ज्यों की त्यों ओढ़ी चादर
पूरे दिवस बना कर गठरी उसमें बांधे निहित स्वार्थ ही
दे ना सका संतोष हमें निधि अपनी पूर्ण लुटा रत्नाकर
लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर, मंदिर, मस्जिद, गिरजे मठ ही
करती रही अपेक्षा वसुधा, एक बार तो लिखें आदमी !
2 comments:
लिखे श्वेत पृष्ठों के ऊपर, मंदिर, मस्जिद, गिरजे मठ ही
करती रही अपेक्षा वसुधा, एक बार तो लिखें आदमी !
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
Post a Comment