नैन बुनते रहे मोतियों की लड़ी

चांदनी  ने छुआ था नहीं कल जिन्हें
आज भी धूप से होके वंचित रहे
पीर के ये निमिष थे तिमिर में उगे
तो अंधेरों में मन के ही संचित  रहे
 
होंठ की सिसकियों को न सुर दे सके
सरगमों के हुए वस्त्र छोटे सभी
कंठ कोई सजाने में असफ़ल रहा
नैन बुनते रहे मोतियों की लड़ी
मंथनों में दिवस सिन्धु ने ला दिये
शंख प्रहरों के सारे गरल से भरे
जिनमें चर्चा रही थी तनिक गंध की
शब्द सारे रहे गांव से भी परे
 
कालिमा की बिछी चादरों में घुली
अपनी परछाईयाँ से अनिश्चित रहे
 
बन्द होकर के घड़ियों के सन्दूक में
थे निमिष तिलमिलाते हुए रह गये
रेत के ही घरोंदे बने थे सपन
इसलिये देखते ही लहर ढह गये
सीपियों को न चुन पा सकीं उंगलियाँ
पांव बालू की ढेरी पे टिक न सके
खूब देखा मुलम्मा चढ़ाये हुये
शिल्प टूटे हुए किन्तु बिक न सके
 
छांह में बरगदों के बनी धूनियाँ
तन कड़ी धूप में होते ज्वालित रहे
 
जो बदलना नहीं था,बदल न सका
बर्फ पिघली शिखर पे न कैलाश के 
मान चाहे लिया था किलों की तरह 
स्वप्न  होकर घरोंदे रहे ताश के 
अपनी हठधर्मियों के घिरे व्यूह में
राख चुनते हथेली पे रखते रहे
आधे सावन की बीती हुई थी निशा
हम संजोये हुए रंग भरते रहे
 
शब्द आते रहे होंठ पर अनवरत
अर्थ से किन्तु सारे अपरिचित रहे

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