वर्ष बीते हैं अब गिनतियों से अधिक
किन्तु हम रह गये हैं वहीं के वहीं
मोमबत्ती जला भोर रखती रही
राह सूरज नहीं भूल जाये कहीं
जितने आश्वासनों ने दिलासे दिये
ढल गये सांझ की रोशनी की तरह
छिन गई हाथ से बिन बताये हुए
ज़िन्दगी की रही एक जो थी वज़ह
दर्पणों में संवरते हुए बिम्ब सी
आस छलती रही उम्र की पालकी
सज़दा करते हुए एक अरमान का
घिस गईं रेख लिक्खी हुई भाल की
रात भर का है तम,हम रहे सोचते
रोशनी कल उगेगी यहीं पर कहीं
पेड़ हम बाढ़ में थे किनारे खड़े
आईं लहरें चरण धो के जाती रही
मनचली कुछ तरंगें हवा की भटक
भैरवी द्वार पर गुनगुनाती रहीं
तय था मुट्ठी नहीं बन्द हो पायेगी
इसलिये हाथ कुछ भी नहीं आ सका
तार थे वीन के टूट बिखरे हुए
रागिनी कोई भी कंठ गा न सका
छल गईं व्याख्यायें पुन:वे हमें
प्रश्न ही हैं गलत और उत्तर सही
मन में सँवरे अपेक्षाओं के चित्र को
नाम भ्रम का दिया आज के दौर ने
और फिर भाग्य का लेख नव लिख दिया
शीश पर आ बिखरते हुए खौर ने
मंत्र संकल्प के जो रटे रात दिन
वेदियों पर कभी याद आये नहीं
जोकि निर्देश संगीत का दे रहे
राग उनने कभी गुनगुनाये नहीं
आज है अनुसरित सब, जिधर एक पल
होके अनुकूल अपने हवायें बहीं
2 comments:
आज है अनुसरित सब, जिधर एक पल
होके अनुकूल अपने हवायें बहीं
-उम्दा!!
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
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