ज़िंदगी की वाटिका में चाह तो रोपे निरन्तर
तुलसियों को मंजरी पर उग रहीं हैं नागफ़नियाँ
नीर तट अभिमंत्रिता सौगन्ध से सींचा निशा दिन
बाड़ कर सम्बन्ध की बिलकुल अछूती डोरियों से
पल्लवन को छाँह में फ़ैलाईं पलकों की बरौनी
और सौंपा लाड़ प्रतिपल सरगमी कुछ लोरियों से
पर अपेक्षित पाहुनों के पांव अब तक उठ ना पाये
ताकते कितना रहे हम शून्य पथ पर टाँक अंखियाँ
नील नभ की वादियों में है विचरता मन पखेरू
बादलों के पंख फैलाये हवा की झालरों पर
बांह में भर कर धनक के रंग की आभाएँ अद्भुत
ढूंढता विश्रांति के पल धूप वाली चादरों पर
पर ठगी मौसम लुटेरा घात कर बैठा डगर पर
हो गईं अपनी यहां के मोड़ पर हर राहजनियाँ
रह गये बुनते घरौंदे याद के सैकता कणों से
नैन वाली जाह्नवी की धार में निशिदिन भिगोकर
दूर होकर के लगाई जो विगत ने, अड़चनों से
है सजाते मौक्त मणियों से जड़े सपने पिरोकर
पर ना जाने कौन अपनी उंगलियों के इंगितों से
काँच के टुकड़े बना देता,सजाईं हीर कनियाँ
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