जानते परिणति बुझेंगे अंतत:
दीप फिर भी सांझ में जलते रहे
झोलियाँ खाली थीं खाली ही रहीं
औ हथेली एक फ़ैली रह गई
हाथ की रेखाओं में है रिक्तता
एक चिट्ठी चुन के चिड़िया कह गई
चाल नक्षत्रों की
बदलेगी
नहीं
ज्योतिषी ने खोल कर पत्रा कहा
दिन बदलते वर्ष बारह बाद हैं
एक यह विश्वास पलता भी ढहा
पर कलाई थाम कर निष्ठाओं की
पाँव पथ में रात दिन चलते रहे
भोर खाली हाथ लौटी सांझ को
चाह ले पाए बसेरा रात से
दोपहर ने लूट थे पथ में लिए
वे सभी पाथेय जो भी साथ
थे
धूप का बचपन लुटा यौवन ढला
एक भी गाथा न लेकिन बन सकी
रिस रही थी उम्र दर्पण देखते
अंततोगत्वा विवश हारी थकी
एक लेकर आस लौटेंगे सुबह
इसलिए हर सांझ को सूरज ढले
रंग दिये पत्थर कई सिन्दूर से
व्रत किये परिपूर्ण सोलह, सोम के
देवताओं के ह्रदय पिघले नहीं
जो बताया था गया है मोम
के
पूर्णिमा की सत्यनारायाण कथा
और हर इक शुक्र बाँटे गुड़ चने
पर न जाने क्या हुआ, छँटते नहीं
छाये विधि के लेख पर कोहरे घने
आस्थायें ले अपेक्षायें खड़ीं
एक दिन उपलब्धि
मिल ले
गले
No comments:
Post a Comment